
Admin
जब माँ पच्चीस की थीं…
सोचती हूँ माँ कैसी थीं, जब वो पच्चीस की थीं
सोचती हूँ माँ कैसी थीं, जब वो माँ नहीं थीं
जब मैं, मेरा इंतज़ार, मेरा ख़याल भी नहीं था उन्हें
ख़याल तो क्या, दूर के सपनों में भी नहीं थी मैं
सोचती हूँ माँ कैसी थीं, जब वो पच्चीस की थीं
माँ के पास क्या था
माँ का ख़ास क्या था
उनके दोस्त कौन थे
माँ का राज़ क्या था
कौन से ख़्वाब थे आँखों में, क्या कहानी थी
जब अपनी कहानी की नायिका ख़ुद माँ ही थीं
मुझे समझदार बनाने वाली, जब ख़ुद बच्ची सी थीं
सोचती हूँ माँ कैसी थीं, जब वो पच्चीस की थीं
मेरे पंखों को हवा देने वाली, जब अपने पर फैलातीं थीं
रात रात भर जाग कर जब, वो अपने ख़्वाब सजातीं थीं
जब मेरी तरह ही वो अपनी माँ को हर एक बात बतातीं थीं
मेरी माँ की हर फ़िक्र, हर ख़याल, हर क़िस्से में, जब उनकी माँ आती थीं
सोचती हूँ माँ कैसी थीं जब वो पच्चीस की थीं
सोचती हूँ माँ कैसीं थीं
जब मैं उनके जैसी नहीं, वो अपनी माँ जैसी थीं।
आँचल
अगस्त, २०२०
बॉम्बे